Sheikhpura: “बाप का…दादा का…भाई का…सबका बदला लेगा…तेरा यह फैजल…”मगर यहां तो…फैजल ही बदल गया…रामाधीर के गोद में बैठ गया. कल्ट फिल्म…गैंग्स ऑफ वासेपुर…का चिरपरिचित डायलॉग यहां बिल्कुल फिट बैठता है.
बिहार में आपका स्वागत है. उसमें भी जिला शेखपुरा. कहते हैं इस जिले से दो ही राजनीतिक दिग्गज निकले. सर्वप्रथम बिहार की आन बान शान…आजादी की लड़ाई के चमकते ध्रुव तारा…आधुनिक बिहार के निर्माता…हम सब के आदर्श…बिहार केसरी…डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह का पैतृक गांव…इसी जिले में पड़ता है और दूसरा नाम है राजो सिंह उर्फ राजो बाबू. कांग्रेस के दिग्गज नेता. जिन्होंने कभी हार का मुंह नहीं देखा, लगातार लगभग 10 चुनाव लड़े, मुखिया से लेकर सांसद तक, मगर कोई भी माई का लाल इनको चित नहीं कर सका, शेखपुरा जिला का जनक भी इन्हीं को कहा जाता है.
कहते हैं अगर यह नहीं अड़ते तो लालू जी शेखपुरा को जिला नहीं बनाते. इसलिए सही मायने में श्रेय उन्हीं को जाता है. राजो बाबू. नाम आते ही जो छवि सामने आती है. वह यह है. लंबा चौड़ा कद…तीखे नैन नक्श…आंखों पर चश्मा…पैनी नजर…अखड़ बोली…कड़ा स्वभाव और जमींदारों वाली पूरी ठसक. दूध से उजली धोती और उस पर कड़क कुर्ता कलप मार के. इनका दरबार लगता था, जो भी आए…इनका चरण स्पर्श करना ही पड़ता था. अगर चूक गए तो शामत है. इसके अलावा अगर कोई काम लेकर गए और उन्होंने गरिया दिया यानी गाली गलौज करके डांट दिया तो काम होना पक्का समझो. गजब लबोलबाब और मिजाज रहता था हुजूर का. है ना कहानी पूरी फिल्मी. लगता है कि ऐसे किरदार पर एक फिल्म बननी चाहिए. अब आइए कि हमारे परिवार से किस प्रकार का लिंक था. सर्वप्रथम हमारे आदर्श बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह से. जानने वाले करीब के बताते हैं कि राजो बाबू श्री बाबू अपना अराध्य और गुरु मानते थे किसी ने बताया कि इनके शयनकक्ष में श्री बाबू का विशालकाय तस्वीर सदा लगा रहता था. संभवत रोज उनकी आराधना करते थे. इसके अलावा श्री बाबू के जेष्ठ सुपुत्र श्री शिव शंकर बाबू के पीए के रूप में भी इन्होंने योगदान दिया था. उनके बेहद करीब थे. यह बात अलग है कि कालांतर में उन्हीं के खिलाफ चुनाव लड़े और उनको हराकर विधानसभा पहुंचे. किंवदंतीयों में सुनने को मिला कि शिव शंकर बाबू के साथ चलते हुए पीछे से अपना ही पर्चा वितरण कर देते थे. शिव शंकर बाबू के अनुज एवं श्री बाबू के कनिय सुपुत्र श्री बंदी शंकर सिंह उर्फ स्वराज बाबू यानी हमारे नाना जी से इनकी लंबी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता रही अपने जीवन में पहली बार भी राजो बाबू का दर्शन नाना के देहावसान के अवसर पर ही किया था उसी दुख की बेला में सबसे पहले आने वाले आगंतुकों में राजो सिंह थे…मैं एक अबोध बालक था…हम नाना के पार्थिव शरीर के एक तरफ से देखा की…चमचमाती हुई टाटा एस्टेट गाड़ी से…एक लंबा चौड़ा व्यक्तित्व का स्वामी उतरा…चकाचक सफेद धोती कुर्ता में…कड़क आवाज और चुस्त चाल में…नाना की ओर अग्रसर होते देख…हम समझ गए कि यह जरूर कोई महारथी ही हैं. अपने कड़क और अक्खड़ आवाज में सारी व्यवस्था का जायजा लिया और मौजूद सरकारी व्यवस्था को चुस्त रहने का निर्देश दिया.
आगे जाकर इनके एक लोकसभा चुनाव में संभवतः बेगूसराय से हमारी माताजी ने इनका निष्काम और पूरी ताकत के साथ मदद किया था. श्रीमती कृष्णा शाही के खिलाफ…जिसके लिए यह जीवनभर उनके आभारी रहे. एक और दिलचस्प बात है…उस समय हमारी माता जी का दुकान “बचपन” हुआ करता था. हमारे मौसेरे भाई के एक मित्र जो तत्कालीन कारा मंत्री थे और बरबीघा से जीते थे. वह दुकान पर पधारे थे. मैं भी उपस्थित था. भैया के चलते वह भी माता जी को मौसी ही कहते थे. मां ने उनसे पूछा, “क्या रे…ई दसों उंगली में अंगूठी पहने हुए हो…क्या बात है…”उन्होंने जो जवाब दिया…वह किसी भी फिल्मी डायलॉग को फेल कर सकता है…उन्होंने कहा…”क्या कहें मौसी जी… जिसका दुश्मन राजो सिंह जैसा आदमी हो…उसका सारा ग्रह गोचर सही होना चाहिए…”यह जवाब सुन कर मेरा बालमन उद्वेलित हो उठा…हम बेहद कौतूहल में थे कि ऐसा कौन सा विराट व्यक्तित्व है…जो एक मंत्री को दसों उंगली में अंगूठी पहना दिया. और फिर 1 दिन खबर आई उनकी हत्या की.
बाकी आगे शेष भाग में…
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.