राजो बाबू के समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री से कम नहीं मानते थे, एक अजेय योद्धा की हार – पार्ट 2

Please Share On

Sheikhpura: दिनांक – 9 सितंबर, 2005…स्थान – आजाद हिंद आश्रम स्थित कांग्रेस मुख्यालय, शेखपुरा…समय – शाम के लगभग 7:00 बजे, राजो बाबू का दरबार सजा हुआ था, स्थानीय लोगों से मुलाकात कर रहे थे. संभवत बिजली कटने से अंधेरा था. अचानक गोलियों की  तड़तड़ाहट ने शाम के सन्नाटे को चीर दिया. ताबड़तोड़ फायरिंग हुई और फिर से सन्नाटा. इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता इलाके का शेर, ढेर हो चुका था…एक महारथी धराशायी हो गया…एक युग का अंत…शेखपुरा सदर थाने में उनके पौत्र सुदर्शन कुमार द्वारा नामजद एफआईआर दर्ज कराया गया. जिसमें मंत्री अशोक चौधरी, विधायक रणधीर कुमार सोनी, पूर्व जिला परिषद अध्यक्ष मुकेश यादव, टाटी नरसंहार के सूचक मुनेश्वर प्रसाद, लड्डू पहलवान को नामजद किया गया. यह बात अलग है कि इनमें से अधिकतर को चार्जशीट तक में शामिल नहीं किया गया. अब किस कारणवश नहीं किया गया यह तो अनुसंधानकर्ता ही बता सकते हैं. अब चलते हैं अतीत में…

इलाके में दो ताकतवर राजनीतिक परिवार थे. एक के मुखिया राजो सिंह थे और एक के महावीर चौधरी. हालांकि चौधरी जी बरबीघा के मूल निवासी नहीं थे मगर फिर भी आरक्षित सीट होने के कारण इसका पूर्ण लाभ उन्हें लंबे समय तक मिला. वह 1980 से लेकर 2000 तक 4 टर्म लगातार बरबीघा के विधायक रहे और निसंदेह आज भी उनके बारे में अच्छी बातें ही सुनने को मिलती हैं…दूसरे परिवार का नेतृत्व करते हुए राजो बाबू. सन् 1972 से लेकर 2000 तक में सिर्फ एक टर्म को छोड़कर शेखपुरा के विधायक रहे. सन 2000 में जब वह सांसद बने तो उन्होंने अपनी परंपरागत सीट पर पुत्र संजय सिंह को खड़ा किया और उनकी जीत सुनिश्चित कराते हुए बिहार सरकार में मंत्री बनवाया इधर 2000 के बाद महावीर चौधरी ने अपनी राजनैतिक विरासत अपने पुत्र अशोक चौधरी को सौंपी और वह बरबीघा से विधायक बने एवं बिहार सरकार में मंत्री बने. जानकार कहते हैं कि दोनों परिवारों में बहुत अच्छी मित्रता थी. राजो सिंह और महावीर बाबू में अच्छा समन्वय एवं तालमेल था. यहां तक कि सुनने में आता है कि राजो बाबू की कोई भी बात चौधरी जी नहीं काटते थे मगर अब आइए वर्ष 2000 में…



नई पीढ़ी सत्ता पर काबिज हो चुकी थी. दोनों पुत्र चुनाव जीत चुके थे. संजय सिंह यह चाहते थे कि जैसे उनके पिता की बात सुनी जाती थी वैसे ही अशोक चौधरी भी उनकी बात को वजन दें मगर ऐसा हुआ नहीं. कारण स्पष्ट है राजो बाबू और संजय सिंह के व्यक्तित्व व शख्सियत में जमीन आसमान का फर्क था. इलाके के लोग और खासकर राजो बाबू के समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री से कम नहीं मानते थे सरकार चाहे किसी की भी हो मगर उस इलाके और सरकार में दबदबा राजो सिंह का ही रहता था. उनके इसी काम कराने की क्षमता के कारण उनकी लोकप्रियता का विशुद्ध लाभ उनके परिवार को आज तक मिल रहा है. पुत्रों में समन्वय एवं तालमेल नहीं बैठ सका जिसके चलते गुटबाजी आरंभ हो गई. इसी क्रम में एक तिथि अति महत्वपूर्ण है.  दिनांक 26 सितंबर, 2001…जिला परिषद शेखपुरा की बैठक चल रही थी. जिसमें दोनों संजय सिंह एवं अशोक चौधरी मौजूद थे. किसी मसले पर दोनों में तनातनी हो गई, कहासुनी हो गई. किसी तरह बीच-बचाव किया गया. तत्पश्चात बैठक के समाप्त होने के उपरांत सभी अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़े. लौटने के दौरान घात लगाए अपराधियों ने अशोक चौधरी के काफिले को समझकर बरबीघा और शेखपुरा के बीच अवस्थित टाटी पुल पर गाड़ियों पर अंधाधुंध फायरिंग करते हुए उन्हें छलनी छलनी कर दिया. ताबड़तोड़ चली गोलियों ने तत्कालीन जिला परिषद शेखपुरा के निर्वाचित सदस्य अनिल महतो और राजद के जिला अध्यक्ष काशीनाथ पहलवान की मौके पर मौत हो गई. उनके साथ छह और लोग कालकल्वित हो गए. मंत्री अशोक चौधरी बाल-बाल बच गए. कारण कि वह पहले ही निकल चुके थे. कालांतर में यह टाटी पुल नरसंहार के रूप में कुख्यात हुआ.

यह एक अप्रत्याशित घटना थी. बिहार केसरी डॉक्टर श्री कृष्ण सिंह की धरती पर इस तरह का राजनैतिक नरसंहार पहले कभी नहीं हुआ था. इस कारण से इलाके में ही नहीं अपितु पटना के सत्ता के गलियारों में भी सनसनी फैल गई. इस मामले में सांसद राजो सिंह, उनके पुत्र मंत्री संजय सिंह समेत 10 आरोपियों को नामजद अभियुक्त किया गया और राज्य सरकार ने आनन-फानन में विशेष अदालत का गठन कर अपना पल्ला झाड़ा. अभी उस मामले की जांच चल ही रही थी कि 9 सितंबर 2005 को महारथी राजो सिंह को मौत के घाट उतार दिया गया.

इसके आगे…

अगले भाग में…

अमृतांश आनंद की कलम से
अमृतांश आनंद की कलम से

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

Please Share On